एक दिन जाना होगा अपनी जगह छोड़ कर
लोग आएंगे विदा करने
और विदा नहीं कर पाएँगे
वे नहीं पूछ पाएँगे
कितना दुःख है तुम्हें और क्यों
किसी से बिना कुछ कहे
अपने को जुदा करके चले आना होगा
उस दुनिया से जहाँ जड़ें थीं गहरी धंसी हुईं
शाम ढलती थी तो वहीं ढलती थी
सुबह वहीं होती थी
अकेली रातों की टीस ने वहीं जन्म लिया था
वहीं प्यार था वहीं घृणा
अपने लिए कुछ नहीं जुटाया था वहां रहते
सिवाय अपने
वहां अकेले थे अपने तमाम दुखों के साथ
अब जुदा होने के बाद
वे दुःख करेंगे पीछा
जैसे छायाएं चलती हैं चांदनी रात में दबे पाँव
किसी निर्जन उदास समय में
पुराणी आवाजों के टुकड़े बहे चले आयेंगे हवा के साथ
उदासी को और बढ़ाने
सपने बार बार खींच ले जायेंगे वहीं
नींद में हंसाते और जगने पर रुलाते हुए
पीड़ा को और घना करती स्म्रतियां बहेंगी
जैसे जख्मों से रह -रह कर बहता है मवाद
अन्दर ही अन्दर फूटेंगे जख्म
भीतर से उठेगी कराह
और किसी को पता नहीं चलेगा
वह प्यार की थी या घृणा की या पीड़ा की
या उस दुख की
जो वहां रहते था और चला आया था यहाँ तक
अकेले साथी की तरह
Saturday, November 15, 2008
Sunday, November 9, 2008
धीरज श्रंखला में से एक कविता, धीरज-2
धीरज -२
कहाँ रहा लोगों में अब
एक समय था तब देखना था
क्या ठाठ था उसका
कैसी ठसक और धजा
सालों निकल जाते थे और एक "उफ " तक नहीं
कोई हड़बड़ी, नहीं कोई जल्दबाजी
न कहीं पहुंचने कुछ पाने की ललक
कोई प्रतीक्षा तक नहीं
आकांक्षा ना तमन्ना
कुछ मिलता नहीं था
ना कोई हासिल
फिर भी सब कुछ न्योछावर था उसपर
बस एक जिद भर थी या शायद जिद भी नहीं
अपने पर यकीन ही था बहुत ठोस और दृढ
कभी ना डिगने का
पकडी जो राह बस उसपर चलते चले जाने
और उसे निभाने का
अब कहाँ बाकी उसका वह वैभव
कहते हैं यह समय भी नहीं उसका
ooooooo
कहाँ रहा लोगों में अब
एक समय था तब देखना था
क्या ठाठ था उसका
कैसी ठसक और धजा
सालों निकल जाते थे और एक "उफ " तक नहीं
कोई हड़बड़ी, नहीं कोई जल्दबाजी
न कहीं पहुंचने कुछ पाने की ललक
कोई प्रतीक्षा तक नहीं
आकांक्षा ना तमन्ना
कुछ मिलता नहीं था
ना कोई हासिल
फिर भी सब कुछ न्योछावर था उसपर
बस एक जिद भर थी या शायद जिद भी नहीं
अपने पर यकीन ही था बहुत ठोस और दृढ
कभी ना डिगने का
पकडी जो राह बस उसपर चलते चले जाने
और उसे निभाने का
अब कहाँ बाकी उसका वह वैभव
कहते हैं यह समय भी नहीं उसका
ooooooo
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